राजनीति के संत महामानव पं. दीनदयाल उपाध्याय,11 फरवरी पुण्य तिथि पर साहित्यकार रमेश सिंघानिया बाराद्वार का विशेष लेख
शक्ति छत्तीसगढ़ से कन्हैया गोयल की खबर
सक्ति- पूरी देश दुनिया में जिन्होंने अंतिम छोर के अंतिम व्यक्ति के विकास की सोच रखी,ऐसे कर्मयोगी पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 11 फरवरी को पुण्यतिथि पर नवगठित शक्ति जिले के बाराद्वार शहर के प्रतिष्ठित साहित्यकार रमेश सिंघानिया ने अपनी कलम से पंडित जी के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए अपनी भावनाएं व्यक्त की है
सफलता की पूजा हो सकती है पर श्रद्धा आदर्शों के प्रति ही उपजती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के क्षेत्र में एक ऐसा नाम है जिसे सुनते ही श्रद्धा आकस्मिक रूप से उमड़ पड़ती है। आज जबकि अधिकांश राजनीतिज्ञ राजनीति को स्वार्थ साधन का आधार बना चुके हैं दीनदयाल सदृश्य महान व्यक्तियों की आवश्यकता और भी अधिक महसूस होने लगी है जिन्होंने राजनीति को हमेशा देश और समाज की सेवा का माध्यम ही माना है। उनका कहना था की राजनीति ऐसी होनी चाहिए कि जिससे सामाजिक क्षेत्र में नवनिर्माण का संकल्प गूंज उठे। महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो धन बल का सहारा ले राजनीति में छा जाने की इच्छा रखने वाले बहुत मिलेंगे परंतु अभावों में पलकर अपने आचरण एवं व्यक्तित्व से राजनीति में अपना स्थान बनाना बहुत कम लोगों को आता है। दीनदयाल जी का जीवन अभाव एवं विपत्तियों से ग्रस्त था परंतु यह उनकी दृढ़ता का ही परिचायक था कि वह कभी टूटे नहीं। 3 वर्ष की आयु में पिता का और 7 वर्ष की आयु में माता का देहावसान 10 वर्ष की आयु में पालनकर्ता नाना का निधन और 18 वर्ष की आयु में 2 वर्ष छोटे अनुज का साथ छूटना नियति का इतना निर्मम प्रहार झेलना पड़ा था दीनदयाल जी को,आज आमतौर पर उसे ही सफल राजनीतिज्ञ माना जाता है जो येन केन प्रकारेण सत्ता के उच्च सोपान पर विराजमान हो सके चाहे इसके लिए आदर्शों की कितनी ही अवहेलना करनी पड़े। राजनीतिज्ञों के बारे में किसी ने कहा है कि “दुनिया के सभी राजनीतिज्ञ एक समान होते हैं वे ऐसी जगह भी पुल बनाने का वादा कर सकते हैं जहां कोई नदी नहीं बहती” यदि उक्त कथन को सत्य माना जाए तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय को राजनीतिज्ञ कहना अनुचित ही होगा क्योंकि उन्होंने हमेशा कथनी और करनी की एकरूपता पर ही जोर डाला है
किसी ने उन्हें राजनीति में आधुनिक ऋषि कहा है तो किसी ने अजातशत्रु। भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने उनके बारे में कहा कि महान व्यक्तियों का किसी दल विशेष से संबंध नहीं होता एक महान व्यक्ति सामाजिक नेता होता है जो की संपूर्ण समाज को एक स्थायी मार्गदर्शन देता है। दीनदयाल जी ऐसी ही श्रेणी के नेता थे। दीनदयाल जी एक महान विचारक, श्रेष्ठ लेखक, कुशल राजनीतिज्ञ और इन सबसे बढ़कर एक श्रेष्ठ मानव थे। उनका जीवन प्रखर राष्ट्रीयता से ओतप्रोत था राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन और व्यापक चिंतन करके उन्होंने समय पर जो विचार व्यक्त किए वे समयानुकूल तो थे ही साथ ही सच्चाई से उद्दीप्त थे। दीनदयाल जी का कहना था कि सृष्टि संघर्ष पर नहीं सहयोग और समन्वय पर टिकी है, पुरुष और प्रकृति के संघर्ष से नहीं अपितु उनके परस्पराधीनता से सृष्टि बनती और चलती है अतः वर्ग विरोध और संघर्ष के स्थान पर परस्परावलंबन और सहयोग के आधार पर समाज की दिशा निर्धारित होनी चाहिए। उनका स्पष्ट कथन था कि व्यक्ति और समाज के बीच कोई संघर्ष नहीं है और यदि है तो वह विकृति का लक्षण है
साहित्यकार रमेश सिंघानिया ने बताया कि दीनदयाल जी ने भारत की समस्याओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखा और भारत की समृद्ध संस्कृति और उसकी आत्मा के अनुसार उसका हल खोजने की कोशिश की। कश्मीर के बारे में उनकी स्पष्ट राय थी कि पाकिस्तान के साथ यदि कश्मीर का कोई प्रश्न शेष है तो वह उसकी एक तिहाई क्षेत्र की मुक्ति का है,वृत्त पत्र में नाम छपेगा, पहनूंगा स्वागत श्रृंगार,छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना, हिंदू राष्ट्र के तारणहार,कविता की इन पंक्तियों के अनुरूप पद प्रतिष्ठा और आत्म प्रचार से दूर रहने वाले पंडित दीनदयाल ने आपात धर्म के रूप में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पद का भार ग्रहण किया। उनके गतिशील और ओजस्वी नेतृत्व से जनसंघ में एक अद्भुत प्रवाह और शक्ति आ गई जनसंघ के कार्यकर्ताओं पर उन्होंने कभी इस निराशावादी सोच को प्रभावित होने नहीं दिया कि राजनीति गंदी होती है या क्या रखा है राजनीति में। जनसंघ ने उनके कार्यकाल में बुलंदियों को छूना प्रारंभ किया। संस्था प्रमुख होने के बावजूद दीनदयाल जी ने हमेशा राष्ट्र को प्रमुख माना संस्था को नहीं। जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में उन्होंने कहा कि हमने किसी संप्रदाय या वर्ग विशेष की सेवा का नहीं बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया है। सभी देशवासी हमारे बांधव हैं जब तक हम इन सभी बंधुओ को भारत माता के सपूत होने का सच्चा गौरव प्रदान नहीं करेंगे हम चुप नहीं बैठेंगे। हम भारत माता को सही अर्थों में सुजलां सुफलां बना कर रहेंगे। लोकतंत्र को दीनदयाल जी ने लोककर्तव्य के निर्वाह का माध्यम माना है। उनका कहना था कि लोकतंत्र की सफलता के लिए नागरिकों का संस्कारित होना आवश्यक है यदि नागरिकों में संस्कार ना हो तो लोकतंत्र व्यक्ति वर्ग तथा दलों के निहित स्वार्थ के संवर्धन का साधन बनकर विकृत हो जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का सही मूल्यांकन करने के लिए राजनीति के दायरे से बाहर आना होगा वह केवल राजनीतिक पुरुष नहीं थे उनका चिंतन समग्र था उन्होंने समय-समय पर जो विचार व्यक्त किए हैं वह दीर्घ काल तक संपूर्ण मानवता का पथ आलोकित करते रहेंगे
उन्होंने देश को एकात्म मानववाद का दर्शन, चरैवेति का मंत्र और अंत्योदय की प्रेरणा दी। राजनीति के इस अजातशत्रु की शत्रुता थी भारत विरोधी विचारधाराओं से, भारत पर आक्रमण करने वाली शक्तियों से, भारत को विभाजित करने वाली नीतियों से, राष्ट्रीय स्वाभिमान को कुंठित करने वाले चिंतन प्रणाली से। यह शक्तियां ही उनकी शत्रु बन गईं और यह शत्रुता उनकी हत्या का कारण। 11 फरवरी 1968 को दीनदयाल जी ने भौतिक रूप से इस संसार को छोड़ दिया परंतु अपने विचारों के रूप में वे आज भी हमारे बीच विद्यमान हैं। जन्म से नहीं कर्म से महान, मानवता के सच्चे मित्र और पुजारी, महामानव पंडित दीनदयाल उपाध्याय को मेरा शत-शत नमन